Rajasthan: सम्राट विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत चल रहा है
क्षत्रिय पत्रिक Popular News :
पृथ्वीराज रासो क्या है? प्रामाणिकता के साथ इस महाकाव्य का अन्वेषण करें।
महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) की जन्म जयंती पर कोटिश: नमन। ऐसी है राणा सांगा की वीरता की कहानी।
रामकोइन (RAM) यूटिलिटी टोकन समुदाय में सेवा शुरू करने वाला पहला डिजिटल टोकन बन गया है।
महाराणा प्रताप एवं चेतक का इतिहास | क्षत्रिय पत्रिका जीवनी सार।
Solar Eclipse Today 2023: 100 साल बाद 20 अप्रैल को लगेगा हाइब्रिड सूर्य ग्रहण, बन रहा ये खास शुभ योग, इस दिन ना करें ये गलतियां
क्षत्रिय सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के जयन्ती दिवस 3 जून 2024 की अतिहार्दिक शुभकामनाएं ।
------------------------------------
(लेखक बलबीर सिंह चौहान घरौंडा करनाल - हरियाणा -93546-02556)
नाम-सम्राट पृथ्वीराज चौहान- तृतीय राज्यकाल 1178 से 1192 ईस्वी (इन सम्राट पृथ्वीराज तृतीय से पहले इसी चौहान राजघराने में राजा पृथ्वीराज-प्रथम राज्यकाल 1090 से 1110 ईस्वी तक तथा राजा पृथ्वी(भट्ट) राज-द्वितीय राज्यकाल 1164 से 1169 ईस्वी तक ये दो राजा और भी पृथ्वीराज नाम के हुए।)
जन्म- सम्राट पृथ्वीराज तृतीय का जन्म ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी संवत 1223 (1166 ई.) को हुआ था। वे 12 साल की आयु में 1178 ईस्वी में राजगद्दी पर विराजमान हो गए थे।
एक ऐसी पोस्ट भी सोशल मीडिया पर देखने में आती है जिसमें जन्म का वर्ष 1149 ई. लिखा है। वह जन्म वर्ष तो पृथ्वीराज द्वितीय का है, तृतीय का नहीं।
जन्मभूमि - अन्हिल पाटन-गुजरात (अपने पिता सोमेश्वर के नाना क्षत्रिय सम्राट जय सिंह सिद्धराज चालुक्य-सोलंकी की राजधानी में पृथ्वीराज तृतीय का जन्म हुआ।
पहले अन्हिल पाटन का नाम केवल पाटन ही था। किन्तु 11वीं शताब्दी के शुरू में नाडोल के राजा अन्हिल चौहान ने पाटन को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। तब इसके साथ अपना नाम अन्हिल जोड़कर उन्होंने अन्हिल-पाटन नाम रख दिया था। )
इससे पहले कि क्षत्रिय सम्राट पृथ्वीराज तृतीय के संबंध में अन्य जानकारियां दी जायें पहले उनके चौहान राजवंश की उत्पत्ति पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है जिसके लिये उनका मुख्य वंश- सूर्य वंश, उपवंश- मालव वंश, शाखावंश-राजर्षि वंश और प्रशाखा वंश-चौहान वंश क्रम से नीचे दिए जाते हैं :-
मुख्य वंश - सूर्यवंश। मनु के पूर्वज विवस्वान नामक एक बड़े ही धर्मात्मा और पराक्रमी नरेश हुए। उनका तेजयुक्त बड़ा ही जाज्वल्यमान मुख मंडल था। उनका अपरनाम सूर्य था। उनके इस सूर्य अपरनाम से ही उनके वंशज सूर्यवंशी कहलाये। सूर्यवंश में आगे चलकर इक्ष्वाकु, काकुत्स्थ, रघु, हरिश्चंद्र जैसे महान सम्राट हुए। इक्ष्वाकु बड़े ही पराक्रमी और शालीन शासक थे। इसलिए उनके नाम पर सूर्य वंश को इक्ष्वाकु वंश भी कहा जाने लगा। रघु नाम के महान सम्राट ने तो अपने अद्भुत शौर्य और पराक्रम से इस वंश को चार चांद लगाए। उनके नाम से इस वंश को रघुवंश भी कहा जाने लगा। जगत् विख्यात भगवान श्री राम ने भी इसी वंश में जन्म लेकर इसे और अधिक यशस्वी और जनप्रिय बना दिया।
उपवंश - मालववंश। श्री राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण के अंगद और चंद्रकेतु दो पुत्र थे। चंद्रकेतु एक महान धनुर्धर होने के साथ-साथ प्रसिद्ध मल्ल (पहलवान) भी थे। उनको महाराज मल्ल नाम से उच्चारित किया जाता था। कारापथ देश में उनके शासन करने के लिए उनके नाम से चंद्रकांता नगरी बसाई गई। समयांतर पर उनके मल्ल नाम से उनके राज्य को मल्ल राज्य कहा जाने लगा। किसी समय यह मल्ल राज्य राम के पुत्र कुश के वंशजों के अधिकार में आ गया। जब वे वीरयोद्धा मल्ल राज्य से इधर-उधर फैले तो मल्ल देश से निकलने के कारण वे मालव कहे गए। मल्ल देश के योद्धा मालव। कहीं-कहीं उन्हें मल्ल और मल्लोई भी कहा गया।
इन मालव वीरों ने पंजाब क्षेत्र के मालवा तथा मध्य प्रदेश क्षेत्र के मालवा बड़े-बड़े दो मालवा नामक राज्यों पर हजारों वर्षों तक शासन किया। उनके वंश मालव के नाम पर ही ये दोनों स्थान मालवा कहे गए।
राजा पोरस से हार खाने के बाद 326 ईस्वी पूर्व में जब सिकंदर अपने यूनान राज्य को वापस लौट रहा था तो तब वह अपनी सेना के साथ पंजाब के पराक्रमी मालवों के क्षेत्र में से गुजर रहा था। तब मालव वीरों ने उसकी सेना को सावधान करके उस पर इतना जबरदस्त आक्रमण किया कि उन्होंने यूनानी सैनिकों की लाशों के ढेर लगा दिए। उन मालव वंशी क्षत्रियों ने सिकंदर पर भी तीरों से ऐसे वार किये कि सिकंदर के दो अंग रक्षक योद्धाओं ने अपने प्राण देकर उसकी जान बचाई। फिर भी एक मालव वीर ने सपत्र बाण मारकर सिकंदर के कवच को भेद कर उसे बुरी तरह घायल कर दिया। इसी मार से घायल होकर वह कभी ठीक नहीं हुआ और बीमार रहते हुए संसार से चल बसा।
शाखा वंश - राजर्षि वंश। एक मालव वंशी राजा ने संन्यास लेकर ईश्वर की उपासना की और राजर्षि पद को प्राप्त किया। जिससे उस मालववंशी राजा के अगले पारिवारिक वंशज क्षत्रिय लोग मालव वंश के साथ-साथ राजर्षि वंशी भी कहे जाने लगे। मालव वंश में से विभिन्न शाखाएं निकली जिनमें से अब तक सात शाखाएं इतिहासकार पहचान सके हैं।
प्रशाखा वंश - चौहान वंश उपरोक्त राजर्षि वंशी शाखा में पांचवी सदी के उत्तरार्ध में लगभग 480 ई. में "नगर" नामक राज्य के राजा विरोचन राजर्षि वंशी हुए। 'नगर' राज्य वर्तमान टोंक जिला राजस्थान के क्षेत्र में पड़ता था जो आज खंडहर के रूप में विद्यमान है। इस "नगर" राज्य का प्राचीन नाम मालवनगर था।
मालव वंश की ही एक दूसरी शाखा औलिकर वंश के मंदसौर-मालवा वर्तमान मध्य प्रदेश के राजा प्रकाश धर्मा के साथ अपनी सेना संयुक्त करके राजा विरोचन राजर्षि ने 515 ईस्वी में कश्मीर से आए हूण आक्रांता तोरमाण की सेना को मार भगा कर युद्ध जीत लिया था। परंतु इस युद्ध में राजा विरोचन बलिदान हो गए थे।
इन राजा विरोचन के बलिदान के बाद इनके दो पुत्रों में बड़े पुत्र चाहमान राजा बने और छोटे पुत्र धनंजय राज्य के प्रधान सेनापति बने।
राजा चाहमान ने परंपरा से चलती आ रही राजधानी को "नगर" शहर से हटाकर अपने पूर्वज आर्यों की धार्मिक नगरी "पुष्कर" में स्थापित कर दी। वहां के क्षेत्र में जो हूण घुस आए थे उनको मार मार कर भगा दिया और 515 से 550 ईस्वी तक 35 वर्ष तक वहां निष्कंटक रूप से धर्मपूर्वक राज्य किया।
चाहमान बड़े ही धर्मात्मा, प्रजा वत्सल, शौर्य पराक्रमी और शूरवीर सम्राट थे। इसीलिए पृथ्वीराज विजय महाकाव्य ग्रंथ के सर्ग-2 श्लोक 44 में पृथ्वीराज के दरबारी कवि जयानक ने लिखा है कि सूर्यवंश कृतयुग में सम्राट इक्ष्वाकु, काकुत्स्थ और रघु को पाकर तीन प्रवर वाला था अब कलयुग में चाहमान को पाकर सूर्यवंश चार प्रवर वाला वंश बन गया है।
ऐसे महाप्रतापी धर्म परायण और मुनि महात्माओं का सम्मान करने वाले सम्राट चाहमान के पारिवारिक आगामी वंशज उनके चाहमान नाम से चाहमान और चौहान वंशी कहे जाने लगे।
चाहमान के देहावसान के बाद उनके पुत्र वासुदेव ने 551 ईस्वी में राज्यरोहण किया और सामरिक लाभ की दृष्टि से कुछ सालों बाद राजधानी को पुष्कर से हटाकर सांभर में स्थानांतरित कर दिया। राजधानी सांभर से लगातार लगभग 550 सालों तक इस राजघराने के चौहान वंशज राजाओं का राज चलता रहा।
इस वंश के महान राजा अजय राज उपनाम अजयपाल देव जब सांभर के राजा बने तो उन्होंने अपने राज्यकाल 1110 से 1133 ईस्वी के बीच 1123 ईस्वी में सुरक्षा की दृष्टि से राजधानी को सांभर से हटाकर अजमेर में स्थापित कर दिया। अब राजकाज अजमेर से संचालित होने लगा।
आगे चलकर अजयराज के पौत्र और महाराजा अर्णोराज के पुत्र विग्रहराज चौहान चतुर्थ राजगद्दी पर आसीन हुए तो उन्होंने अपने पराक्रम से दिल्ली सहित हिमालय से लेकर विंध्याचल तक सारे आर्यावर्त पर अपना आधिपत्य जमां कर इस आर्य राष्ट्र को मजबूत बना दिया था।
इस आधिपत्य के साथ ही उन्होंने देश में तुर्क मुस्लिमों के गुप्त अड्डों को ढूंढ ढूंढ कर उन सब म्लेछों को मौत के घाट उतारा। आक्रमणकारी खुसरो शाह के कई हजार मुस्लिम सैनिकों की लाशें बिछाकर उन्हें हराया। तब उन्होंने अशोक स्तंभ पर शिलालेख लिखवाया कि - मैंने इस आर्यावर्त देश से तमाम म्लेेच्छों (तुर्क-मुस्लिमों) का समूल नाश करके वास्तव में ही इसे "आर्यों का देश" बना दिया है। अशोक स्तंभ आज भी दिल्ली के अंदर फिरोजशाह कोटला परिसर में स्थापित है। उस पर संस्कृत में सम्राट विग्रहराज चौहान चतुर्थ का यह शिलालेख देखा जा सकता है।
उपर्युक्त पारंपारिक प्रमाणों से सिद्ध है कि चौहान राजवंश सूर्यवंश है। लेकिन आजकल बड़े पैमाने पर इसे अग्नि वंश कहना भी प्रचलित है। चौहान वंश को अग्नि वंश भी क्यों कहा जाता है और इस वंश का गोत्र वत्स गोत्र क्यों है इस पर विचार करते हैं - चौहान वंश का कोई पूर्वज राजा ऋषि वत्स की विद्यापीठ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त होने से वत्स गोत्री कहलाया। अथवा वत्स ऋषि के वंशज किसी पुरोहित ने चौहान वंश के चाहमान आदि किसी पूर्वज राजा के राजतिलक के धार्मिक अनुष्ठान को संपूर्ण किया जिससे चौहान वंश का ऋषि गोत्र "वत्स" हुआ।
वत्स ऋषि कण्व ऋषि के वंश में उत्पन्न हुए थे, ऐसा "गोत्र प्रवर्तक ऋषि संक्षिप्त परिचय" नामक पुस्तक राजस्थानी ग्रंथागार, सोजती गेट जोधपुर, से छपी के पृष्ठ 163 पर लिखा है। वहां यह भी वर्णन है कि वत्स ऋषि चारों वेदों (ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद) के भिन्न-भिन्न कुछ मंत्रों के मंत्रदृष्टा ऋषि हैं। वे ऋग्वेद के दसवें मंडल के 187वें सूक्त "अग्नि सूक्त" के मंत्रों के दृष्टा ऋषि होने से "अग्नि" विशेषण से अभिहित हुए। उस पुस्तक में सूक्त गलती से 182 लिखा है मैंने ऋग्वेद ग्रंथ में ढूंढ कर सूक्त संख्या 187 ठीक लिखी। (तो मेरा अनुमान है कि वत्स ऋषि अग्नि सूक्त मंत्र दृष्टा होने से उनका वत्स गोत्र धारण किए हुए चौहान वंश को "अग्नि वंशी" भी कह दिया जाता हो, किंतु पृथ्वीराज रासो में जो क्षत्रियों के चार वंशों प्रतिहार, चौहान, परमार और चालुक्य को अग्नि वंशी लिखा गया है, वह कथा काल्पनिक होने से मान्य नहीं है। इन चार वंशों में पहले तीन वंश सूर्य वंशी हैं और चौथा चालुक्य वंश चंद्रवंशी क्षत्रिय वंश है )
चौहान राजवंश के अनेकों शिलालेखों में एक 1169 ईस्वी में उत्कीर्ण किये गये सुप्रसिद्ध और बड़े-बड़े 30 बिंदुओं के वृहद बिजौलिया शिलालेख में चौहान शासकों की संक्षिप्त कीर्ति के साथ-साथ उनकी राज वंशावली भी दी हुई है। इस शिलालेख के बिंदु 6 में चौहान वंश का ऋषि गोत्र "वत्स" लिखा हुआ है।
ठाकुर इंद्र देव नारायण सिंह निकुंभ द्वारा लिखित "क्षत्रिय वंश भास्कर" ग्रंथ से प्राप्त चौहान वंश संबंधी कुछ सूचनाएं इस प्रकार हैं:-
चौहान वंश के प्रवर ऋषि पांच है, और्व्य, च्यवन, भार्गव, जामदग्न्,अप्तुवान
वेद सामवेद, यह वेद परमात्मा की भक्ति गुणगान संबंधी मंत्रों से भरपूर है। लगता है इसी कारण चौहान वंश के डीएनए में वीरता के साथ-साथ ईश्वर भक्ति भी बहुत शुमार है। चौहान वंश के उच्च शासकों के अतिरिक्त इस वंश में गोगादेव, हर्षदेव,जीण माता, संत पीपाजी कितनी ही उच्च कोटि की अध्यात्मिक आत्माएं हुई हैं। आज भी इस वंश के बहुत से क्षत्रिय क्षत्रियत्व के दमखम के साथ-साथ धर्म अध्यात्म और भावुक वृत्ति के पाए जाते हैं।
शाखा कौथूमी
सूत्र गोभिल गृह सूत्र
कुलगुरु वशिष्ठ
झंडा विष्णु वाहन गरुड़ चित्रांकित
इष्ट अचलेश्वर महादेव
इष्ट देवी मां शाकुंभरी
कुलदेवी मां आशापुरी
मुख्य राजगद्दी सांभर फिर अजमेर बाद में दिल्ली भी।
------------
उप राज गद्दियां- 1947 ईस्वी भारत संघ में मिलाते वक्त लगभग 50 राजा चौहान वंश और इसकी शाखाओं के ही थे। 450 राजागण अन्य क्षत्रिय वंशों और शाखाओं के थे।
इस प्रकार वंश, गोत्र इत्यादि का वर्णन करने के पश्चात पुनः सम्राट पृथ्वीराज से जुड़ी जानकारियों की तरफ लौटते हैं।
सम्राट पृथ्वीराज के पिताजी- उनके पिताजी महाराजा सोमेश्वर थे।( वे पहले अपने मामा सम्राट कुमारपाल चालुक्य के राज्य में मांडलिक राजा थे। फिर 1169 से 1178 ईस्वी तक अपने पैतृक राज्य अजमेर के शासक रहे।)
माताजी- त्रिपुरी-जबलपुर राज्य के कल्चूरि वंशी क्षत्रिय राजा तेजल देव उपनाम अचलराज की सुपुत्री कर्पूरदेवी।
ताऊ जी- सम्राट विग्रहराज चौहान-चतुर्थ (दिल्ली सहित सारे आर्यावर्त के विजेता सम्राट। राज्यकाल 1151 से 1164 ईस्वी)
ताई जी - दिल्ली के क्षत्रिय राजा मदनपाल तोमर (तंवर) की सुपुत्री राजकुमारी देसल देवी।
(अब यहां पाठक गण ध्यान दें। इतिहास की झूठी जानकारी रखने वाले भाटों ने पृथ्वीराज के जाने के 400 साल बाद सोलहवीं सदी में पृथ्वीराज रासो में यह झूठ घुसेड़ दी थी कि पृथ्वीराज ने धोखे से अपने नाना अनंगपाल द्वितीय से दिल्ली का राज छीन लिया था। अब वैज्ञानिक तरीके से इतिहास लिखा जा रहा है उसमें अनंगपाल द्वितीय का शासनकाल 1051 से 1081 ईस्वी मिला है। इस प्रकार वे पृथ्वीराज के जन्म से लगभग 80 वर्ष पहले स्वर्ग सिधार चुके थे। इतने लंबे समय के अंतराल के बाद भी क्या कोई दौहित्र जन्म लेता है? सच्चाई तो यह है कि पृथ्वीराज के ताऊ सम्राट विग्रहराज ने 1151 ईस्वी के आसपास महाराज अनंगपाल द्वितीय के पौत्र राजा मदन पाल तंवर से दिल्ली जीती थी। उन्हीं की बेटी राजकुमारी देसल देवी सम्राट विग्रहराज से ब्याही थी। इस प्रकार पृथ्वीराज का राजा अनंगपाल से तो कोई खून का संबंध ही नहीं था। उनके नाना त्रिपुरी जबलपुर के राजा तेजल उर्फ अचलराज थे, न कि राजा अनंगपाल)
दादा जी- पृथ्वीराज तृतीय के दादा सम्राट अर्णोराज, राज्यकाल 1133 से 1150 ईस्वी। सवा लाख नगरों और गांवों के सांभर नामक विशाल साम्राज्य के शासक, इसे सपादलक्ष साम्राज्य भी कहते थे।अर्णोराज अजमेर में अपने लघु नाम "आना" पर आना सागर नामक विशाल झील के निर्माता भी हैं।
दादी जी - अन्हिल पाटन-गुजरात के चक्रवर्ती क्षत्रिय सम्राट जयसिंह सिद्धराज चालुक्य-सोलंकी की सुपुत्री राजकुमारी कांचन देवी, अर्णोराज की महारानी पृथ्वीराज तृतीय की दादी थीं।
परदादा-परदादी - पृथ्वीराज तृतीय के परदादा महाराजा अजयराज ने राजधानी को सांभर से अजमेर में 1123 में स्थानांतरित किया। राज्यकाल 1110 से 1133 ईस्वी। इनकी महारानी का नाम सोमलेखा था। वे सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय की परदादी लगती थी।
पृथ्वीराज की रानियां -
1- चंद्रावती। आर्यावर्त उत्तरी सीमा के रक्षक-सेनापति पुंडीर वंशी क्षत्रिय राजा चंद्रराज (उपनाम चांद सिंह) की राजकुमारी।
2- इच्छिनी देवी भीनमाल राज्य के परमार (पंवार) वंशी क्षत्रिय राजा जैतसिंह की पुत्री या पौत्री राजकुमारी इच्छिनी देवी। यह रानी जबरदस्त योद्धा भी थी। अजमेर की तलहटी में रानी ने घोड़े पर सवार होकर मौहम्मद गोरी के कईं तुर्क सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद ही अपना बलिदान दिया था।
3- संयोगिता कन्नौज नरेश गाहढ़वाल वंशी क्षत्रिय राजा जयचंद्र की राजकुमारी। कई बार व्हाट्सएप पोस्ट में रानी संयोगिता के बारे में यह बिल्कुल गलत सूचना जारी की जाती है कि उन्हें मोहम्मद गौरी के सैनिकों में फेंक दिया गया था । यह बात इतिहास में कहीं भी नहीं है। शरारती मन्शा के लोग समाज में द्रोह फैलाने के लिए इस प्रकार की घटिया शरारतें रचते हैं।
शासन क्षेत्र- आर्यावर्त(भारत) इसमें सम्राट विग्रहराज चौहान के बलिदान के पश्चात कन्नौज का राज्य क्षेत्र चौहान साम्राज्य से अलग हो गया था। सम्राट पृथ्वीराज तृतीय के समय में कन्नौज के शासक राजा जयचंद थे।
राजधानी - अजमेर-दिल्ली
शासनकाल - 1178 से 1192 ईस्वी
बलिदान - 12 वर्ष की किशोर आयु में पृथ्वीराज ने राजगद्दी संभाली थी। आरंभिक 2 साल उनकी माता कर्पूर देवी ने सम्राट की संरक्षिका बनकर अपनी देखरेख में शासन चलाने में उनका सहयोग दिया। पृथ्वीराज ने अपने जीवन में अनेक युद्ध लड़े। उनके ताऊ सम्राट विग्रहराज के बलिदान के पश्चात जो राजा अजमेर साम्राज्य से स्वतंत्र हो गए थे उनको फिर से केंद्रीय सत्ता को मजबूत करने के लिए पृथ्वीराज ने अपने अधीन किया। 26 वर्ष की भरपूर युवावस्था में 1192 ईस्वी तराइन के दूसरे युद्ध में मोहम्मद गोरी के द्वारा रात को सोती हुई सेना पर धोखे से आक्रमण में सम्राट की हार हुई। उन को पकड़ लिया गया और उनसे कई बार जान बचाने की माफी मांगने वाले कृतघ्न मोहम्मद गौरी द्वारा उनकी आंखें निकाल दी गई।
छोटा भाई - राजा हरिराज जो सम्राट पृथ्वीराज के बाद सिकुड़ गए अजमेर राज्य के 1192 से 1194 ईस्वी तक राजा रहे।
सम्राट पृथ्वीराज का पुत्र - पुंडीर वंशी रानी चंद्रावती से उत्पन्न गोबिंद राज उपनाम रैणसी (रैण सिंह) जो बाद में रणथंभौर राज्य के राजा बने। उनकी चौथी पीढ़ी में (यानि सम्राट पृथ्वीराज की पांचवी पीढ़ी में) जन्मे महान पराक्रमी वीर शरणागत वत्सल (हट्ठी) हमीर देव चौहान 1282 से 1301 ईस्वी तक रणथंभौर के शासक रहे। इन्होंने अपने दिग्विजय अभियानों में दस राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। पहले दो युद्धों में इस महान राजा ने दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को बुरी तरह हराया था। एक दिन उसे भी हरा कर यह भारत से भगा देने की क्षमता रखते थे।
किंतु1301 ईस्वी में हुए तीसरे युद्ध में अलाउद्दीन ने इनके साथ संधि का बहाना करके धोखे से विजय पा ली, तब हम्मीर देव की महारानी हासिल देवी और पुत्री देवल देवी के नेतृत्व में हजारों क्षत्राणी वीरांगनाओं ने हिंदू नारी पवित्रता को कायम रखने के लिए जौहर की धधकती ज्वालाओं में अपने जीवन को स्वाहा करके बलिदान दिये।
पृथ्वीराज के युद्ध उनके ताऊ सम्राट विग्रहराज के देहावसान के पश्चात उनके पुत्र अपरगांगेय, भतीजे पृथ्वी भट्ट (राज)- द्वितीय तथा भाई सोमेश्वर के शासनकाल में केंद्रीय सत्ता से जो-जो राजा स्वतंत्र हो गए थे, उन्हें फिर से सम्राट पृथ्वीराज ने अपने बाहुबल से अपने अधीन करने का अभियान चलाया। सबसे पहले उन्होंने गुडपुर में नागार्जुन को हराया। फिर भादानकों को धूल चटाई। पहले जेजाकभुक्ति में और फिर कालिंजर में राजा परमर्दिदेव चंदेल को हराया। उनके आल्हा ऊदल जैसे बाहुबली सेनापतियों को भी शहीद किया। कन्नौज को सहायता देने वाली चंदेली सेना को हराया। उससे भरतपुर, अलवर, रेवाड़ी को जीता। संयोगिता की इच्छा अनुसार उनका हरण करने के बाद दोनों सेनाओं के बीच हुए युद्ध में जयचंद की सेना को हराया। गुजरात के चालुक्य राजाओं से युद्ध करके उनके जगदेव परिहार और धारावर्ष नामक सेनापतियों को हराया। जम्मू कश्मीर के राजा विजय राज पर हमला करके वहां से बहुत धन प्राप्त किया। मोहम्मद गोरी को सरहिंद की सरहद पर युद्ध में उसे कई बार हराया। उसे सतलुज नदी के मैदान में 1182 ई. में बुरी तरह हराया और पकड़कर उससे वार्षिक लगा लेना तय किया तथा माफी मांगने पर छोड़ा। आगे फिर 1191 ईस्वी में तरावड़ी के मैदान में बुरी तरह हराया, दंड वसूल किया और माफी मांगने पर उसे मुक्त किया।
सम्राट ने उससे तीन बड़े-बड़े युद्ध किये। दो में उसे हराकर उससे दंड वसूल किया, लेकिन उस द्वारा क्षमा मांगने पर उसे छोड़ा जाता रहा।
तीसरे 1192 ईस्वी के बड़े युद्ध के शुरू होने से पहले दिन गोरी ने सम्राट के पास यह संदेश भेजा कि सम्राट इस बार मुझ पर आक्रमण न करें, मैं कल प्रातः ही अपनी सेनाओं को लेकर अपने वतन वापस चला जाऊंगा।
किंतु उस दुष्ट नैतिकहीन मोहम्मद गोरी ने विश्वासघात करते हुए ऐसी कुटिल चाल चली कि रात में सम्राट की सोती हुई सेना पर आक्रमण करके उस दुष्ट ने युद्ध जीत लिया। सम्राट को पकड़ लिया गया।
मानवता के द्रोही क्रूर गोरी ने सम्राट से कई बार मांगे गए अपने माफीनामों को भी अनदेखा करते हुए उस महान सम्राट की आंखें निकलवा कर इस्लाम की हैवानियत का परिचय दिया।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि पृथ्वीराज तलवार के एक ही वार से हाथी की गर्दन काटने की क्षमता रखते थे। हमने रामायण में पढ़ा है कि श्रीराम अजान बाहू थे। अजान बाहू का अर्थ होता है कि जिस योद्धा की भुजाएं इतनी लंबी हो कि खड़े होकर उसके हाथ घुटनों तक पहुंच जाएं। पृथ्वीराज विजय महाकाव्य ग्रंथ में लिखा है कि पृथ्वीराज अजान बाहू सम्राट थे। लगता है श्रीराम की तरह पृथ्वीराज के अत्यंत पराक्रमी सम्राट होने तथा अजान बाहू होने के आधार पर ही कवि जयानक ने उनको राम का अवतार बताया है।जयानक पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबारी कवि थे।
यह बात भी बड़ी प्रचलित है कि कौशल नरेश अयोध्यापति महाराज दशरथ के पश्चात इस आर्यावर्त धरा पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय ही ऐसे वीर थे जो शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत पाये जाते हैं। तभी ऐसा इतिहास मिलता है कि चंद्रवरदाई के दोहे का अनुमान करके, अंधे हो चुके सम्राट ने तीर का सटीक निशाना मारकर गोरी के बड़े भाई गयासुद्दीन गोरी जो कि गोरखपुर देश का राजा था यानि सुल्तान था, को मौत के घाट उतार दिया।
चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान।।
तो बाणवेध परीक्षा में सुल्तान ग्यासुद्दीन गोरी मारा गया था। उसके मरने के बाद ही मौहम्मद गोरी गद्दीनशीन हुआ यानी अपने देश का सुल्तान बना । माना जाता है कि उसे भी 1206 ई0 में गक्खड/खोखर वंश के राजपूतों ने मार डाला था।
नोट-1:- टेलीविजन एपिक चैनल पर इतिहास के विभिन्न शीर्षकों के सीरियल दिखाए जाते हैं। उनमें एक शीर्षक जासूसों का भी है। उसके एक एपिसोड में चंद्रवरदाई को सम्राट पृथ्वीराज के जासूस के रूप में दर्शाते हुए गोरी के कैदखाने में उनसे मिलवाते दिखाया गया है। तब दोनों में गुप्त बात होकर गोरी को चंद्रवरदाई द्वारा पृथ्वीराज के शब्दभेदी बाण की परीक्षा लेने के लिए उकसाया जाता है। परीक्षा की बात स्वीकार होने पर सम्राट को जेल से बाहर निकालकर धनुष थमाया जाता है। चंद्रवरदाई द्वारा उपर्युक्त दोहे का उच्चारण करते ही सम्राट का तीर गोरी की छाती को भेद देता है।
नोट-2:- आजकल शरारती मनोवृति के किसी व्यक्ति ने व्हाट्सएप और फेसबुक पर सम्राट पृथ्वीराज की रानी संयोगिता के संबंध में बिल्कुल झूठी कहानी चला रखी है कि पृथ्वीराज की हार के बाद रानी संयोगिता को निर्वस्त्र करके मोहम्मद गोरी के सैनिकों के बीच में फेंक दिया गया था। ऐसा उल्लेख तत्कालीन मुस्लिम ग्रंथों में भी नहीं है। ऐसे उल्लू के पट्ठे लोग अपनी पूर्वज परंपरा को बदनाम करने में भी बाज नहीं आते या फिर हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए मुसलमानों ने व्हाट्सएप पर यह शरारत रची हो। यदि आपके सामने ऐसी कोई पोस्ट आए तो उसे डिलीट मारें और फॉरवर्ड करने वाले को सावधान करें।
नोट-3:- सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दूसरे दरबारी कवि 'चन्द्र वरदाई' ने "पृथ्वीराज रासो" नाम से इस सम्राट का इतिहास रचा था। वह लगभग 400 साल तक श्रुति रूप में यानि एक से दूसरी पीढ़ी में जबानी तौर पर याद करके सुनने-सुनाने की परम्परा में प्रचलित था। सभी राजा इसे अपने दरबारों में बड़े चाव से सुनकर गौरवान्वित होते थे। सत्रहवीं सदी में इसे लिखित रूप दिया गया। तब कईं राज्यों ने इसमें अपनी बड़ाई का मनमाना इतिहास भरवा दिया। अब जब तिथियों के आधार पर इतिहास को वैज्ञानिक रूप से शोध किया गया तो मिलावटी इतिहास की घटनायें बेमेल निकली, जिससे इतिहासकारों ने इस ग्रंथ "पृथ्वीराज रासो" को इतिहास की कोटि से ही बाहर कर दिया।
(इस संपूर्ण आलेख में बहुत सा भाग स्वर्ण पदक विभूषित इतिहासकार डॉ विंध्यराज चौहान द्वारा शोध किए गए चौहान इतिहास के अंतर्गत "सूर्यवंश महाप्रकाश" ग्रंथ के आधार पर दिया गया है।)
बोलो भारतेश्वर सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय की जय
🌹जय आर्यावर्त जय भारत🌹
🙏